परिचय

साहित्य और संस्कृति के माध्यम से बेहतर समाज निर्माण की आकांक्षा लेकर पक्षधर पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है । पक्षधर पत्रिका का एक इतिहास है । सन् 1975 में इसका पहला अंक हिन्दी के प्रसिद्द कथाकार श्री दूधनाथ सिंह के सम्पादन में इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ पर दुर्भाग्य से देश में तुरंत आपातकाल लागू हो जाने के कारण यह पत्रिका बंद हो गयी । संस्थापक संपादक श्री दूधनाथ सिंह ने सन् 2007 में पक्षधर के पुनः प्रकाशन के अवसर पर इस पत्रिका की योजना के बारे में उस समय की ऐतिहासिक और राजनैतिक परिस्थितियों का जिक्र करते करते हुये लिखा है कि “पक्षधर की योजना सन् 1967-69 की बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों तथा मेरी खुद की बदलती हुई मानसिकता के संदर्भ में सन् 1973-74 के आसपास बनी । कुछ मित्रों और बड़े लेखकों मसलन, शमशेर बहादुर सिंह आदि का परामर्श भी इसके पीछे था । पत्रिका एक निजी उद्यम थी । सन् 1957 के विराट लेखक सम्मेलन में मैंने मुक्तिबोध को देखा (तब मैं मात्र एक विद्यार्थी था) और शमशेर जी के निवास पर उनका काव्य-पाठ सुनकर स्तब्ध रह गया । जैसे तप:शम कोई तांत्रिक हो-पंचाग्नि-दग्ध, विरक्त,नतमुख और समाधिस्थ । जब पक्षधर की योजना बनी तो शमशेर जी की मदद से हमने एक मुद्रक प्रकाशक के कबाड़ से मुक्तिबोध की एक टूटी-फूटी, जर्जर पाण्डुलिपि को ढूंढ निकालने और उसे पत्रिका में छापने में सफलता पायी । वह उपन्यास जस का तस अब उनकी ‘रचनावली’ में उपलब्ध है । लेकिन उस प्रथम अंक की सबसे बड़ी उपलब्धि तत्कालीन ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल’ के जनरल सेक्रेटरी पुष्पलाल जी का राजनैतिक आलेख ‘महाराजा से महाराजाधिराज तक’ और मोदनाथ प्रश्रित की कविता ‘नेपाली बहादुर’ जैसी रचनाएँ थीं । पत्रिका ‘इमरजेंसी’ लगने के ऐन एक हफ़्ते पहले छपकर बाहर आई । पुष्पलाल जी उसकी 200 प्रतियाँ चुपके से (लगभग खुफ़िया तौर पर) नेपाल ले गये, और वह वहाँ वितरित हुई । नेपाल में विदेश मंत्रालय के हाथ लगने के बाद इसकी सूचना भारत सरकार को दी गयी । कुछ-कुछ इस तरह की ‘आपके यहाँ के बुद्धिजीवी हमारे यहाँ के निष्कासित देश द्रोहियों से मिलकर हमारे खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं’। पत्रिका को जब पढ़ा गया तो भारत सरकार को लगा कि नेपाल पर छपी सामग्री के अलावा इसमें बहुत कुछ ऐसा है, जो हमारे खिलाफ़ भी षड्यंत्र के तहत छापा गया है । बस, फिर क्या था पत्रिका को प्रतिबंधित कर दिया गया और उसके वितरण पर रोक लगा दी गयी ।”

लगभग 30-32 सालों के एक लम्बे अंतराल के बाद पुनः सन् 2007 से पक्षधर का प्रकाशन नए सिरे से हो रहा है । हिंदी और हिंदीतर दोनों ही क्षेत्रों में अपनी सामग्री और वैविध्य के चलते इसके सभी अंक काफी चर्चित और प्रशंसित हुए हैं । पत्रिका हिन्दी के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और अकादमिक संस्थानों व पुस्तकालयों में छात्रों द्वारा तो व्यापक रूप से पढ़ी ही जाती है, इससे इतर सामान्य पाठकों के बीच भी यह काफी पसंद की जाती है । साहित्य और संस्कृति से सरोकार रखने वाले और रचनात्मक व्यवहारों से समाज की बेहतरी के लिए सोचने और काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति तक पक्षधर की पहुँच सुनिश्चित करना हमारा लक्ष्य है ।